सरकारी बजट घाटा

बजट घाटे से अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें सरकार का बजट व्यय सरकार की बजट प्राप्तियों से अधिक होता है। दूसरे शब्दों में बजट घाटा सरकार के कुल व्यय की कुल प्राप्तियों पर आधारित है। भारत सरकार के बजट से संबंधित मुख्य रूप से निम्नलिखित तीन प्रकार के बजट घाटे होते है-

  • राजकोषीय घाटा
  • राजस्व घाटा
  • प्राथमिक घाटा

राजकोषीय घाटा क्या है?

यह सरकार के कुल खर्च और उधारी को छोड़ कुल कमाई के बीच का अंतर होता है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो राजकोषीय घाटा बताता है कि सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कितने पैसों की जरूरत है। ज्‍यादा राजकोषीय घाटे का मतलब यह हुआ कि सरकार को ज्‍यादा उधारी की जरूरत पड़ेगी। राजकोषीय घाटे का आसान शब्‍दों में मतलब यह है कि सरकार को अपने खर्चों को पूरा करने के लिए कितना उधार लेने की जरूरत पड़ेगी। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए बहुत सारे उपाय किए जा सकते हैं। सब्सिडी के रूप में सार्वजनिक खर्च को घटाना, बोनस, एलटीसी, लीव एनकैशमेंट इत्‍याद‍ि को घटाना शामिल हैं। अन्य शब्दो में,

  • सरकार की कुल आय और व्यय में अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। इससे पता चलता है कि सरकार को कामकाज चलाने के लिये कितनी उधारी की ज़रूरत होगी। कुल राजस्व का हिसाब-किताब लगाने में उधारी को शामिल नहीं किया जाता है। राजकोषीय घाटा आमतौर पर राजस्व में कमी या पूंजीगत व्यय में अत्यधिक वृद्धि के कारण होता है।
  • पूंजीगत व्यय लंबे समय तक इस्तेमाल में आने वाली संपत्तियों जैसे-फैक्टरी, इमारतों के निर्माण और अन्य विकास कार्यों पर होता है। राजकोषीय घाटे की भरपाई आमतौर पर केंदीय बैंक (रिजर्व बैंक) से उधार लेकर की जाती है या इसके लिये छोटी और लंबी अवधि के बॉन्ड के जरिये पूंजी बाजार से फंड जुटाया जाता है।

राजकोषीय घाटे का इतिहास:

लाघभग तीन दशक पहले की बात करें तो देश में बहुत कम लोगों ने राजकोषीय घाटे का नाम सुना होगा। इस शब्द का आधिकारिक तौर पर प्रयोग पहली बार वर्ष 1989-90 की आर्थिक समीक्षा में किया गया था। वर्ष 1991 के आर्थिक संकट के बाद स्थिरीकरण की प्रक्रिया और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के कार्यक्रमों के बीच इसकी चर्चा और भी अधिक होने लगी।

निश्चित तौर पर हमारी सरकार ने उस वक्त इसे गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन आज वक्त बदला है और आज राजकोषीय घाटे में कमी लाना सरकार की आर्थिक नीतियों का एक प्रमुख लक्ष्य है। अतः बीते 35 वर्ष के दौरान देश में राजकोषीय घाटे के दायरे की समीक्षा करना काफी जानकारीपरक साबित हो सकता है।

राजकोषीय घाटा की परिभाषा:

राजकोषीय घाटे का संबंध सरकार के राजस्व तथा पूँजीगत दोनों प्रकार तथा व्ययों तथा राजस्व और उधार छोड़कर बाकी पूँजीगत प्राप्तियों से है अन्य शब्दों में राजकोषीय घाटा कुल व्यय (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) और उधार को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है सूत्र के रूप में, राजकोषीय घाटा = कुल व्यय (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) - उधार छोड़कर कुल प्राप्तियाँ अथवा राजस्व घाटा + पूंजीगत व्यय - उधर छोड़कर पूंजीगत प्राप्तियाँ अथवा उधार/ऋण राजकोषीय घाटा सरकार द्वारा आवश्यक उधारों का अनुमान है राजकोषीय घाटे का अधिक होना इस बात का प्रतीक है की सरकार को ऋण लेना पड़ेगा।

राजकोषीय घाटे के अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

राजकोषीय घाटे का अर्थ है सरकार द्वारा लिए जाने वाले उधार/ऋण में वृद्धि। इस बढ़ते ऋण के निम्नलिखित प्रभाव को सकते है।

  • स्फीतिकारी जाल-सरकार द्वारा लिए जाने वाले ऋण के कारण मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होती है। मुद्रा पूर्ति में वृद्धि के कारण कीमत स्तर मे वृद्धि होती है। कीमत स्तर में वृद्धि उच्च लाभ की आशा में निवेश को प्रेरित करती है, परंतु जब कीमत स्तर भयप्रद सीमाओं तक बढ़ने लगता है तो निवेश में कमी आती है, जिससे एक स्फीतिकारी जाल बन जाता है। एसी स्थिति में सकाल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत के रूप में एक लंबी समय अवधि के लिए राजकोषीय घाटा बना रहता है तथा यहाँ दीर्घवधि आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न हो जाती है
  • भावी पीढ़ी पर बोझ-राजकोषीय घाटे के फलसावरूप भावी पीढ़ी को विरासत में एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था मिलती है, जिसमे सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर कम रहती है, क्योंकि सकल घरेलू उत्पादक का बड़ा हिस्सा ऋणों के भुगतान में खर्च को जाती है।
  • सरकारी विश्वसनीयता मे कमी-उच्च राजकोषीय घाटे के कारण घरेलू तथा अंतराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में सरकार की विश्वनीयता में कमी आ जाती है इससे अर्थव्यवस्था की क्रेडिट रेटिंग गिरने लगती है। विदेशी निवेशक अर्थव्यवस्था में निवेश करना बंद करते हैं और आयात महँगे हो जाते हैं। इससे भुगतान शेष का घाटा भी बढ़ता जाता है इसके कारण भी सरकार को और ऋण ले पद सकते हैं या विधेशी प्रत्यक्ष निववेश के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना पद सकता है। यह ऋण के दुष्चक्र को जन्म देता है।
  • ऋण जाल/ऋण फंदा-सकल घरेलू उत्पाद के बढ़ते प्रतिशत के रूप में निरंतर उच्च राजकोषीय घाटे के कारण एसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है जहां-
  • उच्च राजकोषीय घाटे के कारण सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर कम होती है।
  • निम्न सकाल घरेलू उत्पाद समृद्धि के कारण राजकोषीय घाटा उच्च होता एसी स्थितियों में सरकारी व्यय का बढ़ा भाग निवेश व्यय पर नहीं, बल्कि ऋणों के भुगतान व ब्याजों के भुगतान पर खर्च हो जाता है।

राजस्‍व घाटा का क्या है?

राजस्व घाटा तब होता है जब सरकार के कुल खर्च उसकी अनुमानित आय से ज्‍यादा होते हैं। सरकार के राजस्व खर्च और राजस्व प्राप्तियों के बीच के अंतर को राजस्व घाटा कहा जाता है। यहां ध्‍यान रखने वाली बात यह है कि खर्च और आमदनी केवल राजस्‍व के संदर्भ में होती है। रेवेन्‍यू डेफिसिट या राजस्‍व घाटा दिखाता है कि सरकार के पास सरकारी विभागों को सामान्‍य तरीके से चलाने के लिए पर्याप्‍त राजस्‍व नहीं है। दूसरे शब्‍दों में कहें तो जब सरकार कमाई से ज्‍यादा खर्च करना शुरू कर देती है तो नतीजा राजस्‍व घाटा होता है। राजस्‍व घाटे को अच्‍छा नहीं माना जाता है।

खर्च और कमाई के इस अंतर को पूरा करने के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है या फिर वह विनिवेश का रास्‍ता अपनाती है। रेवेन्‍यू डेफिसिट के मामले में अक्‍सर सरकार अपने खर्चों को घटाने की कोशिश करती है या फिर वह टैक्‍स को बढ़ाती है। आमदनी बढ़ाने के लिए वह नए टैक्‍सों को ला भी सकती है या फिर ज्‍यादा कमाने वालों पर टैक्‍स का बोझ बढ़ा सकती है।

राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटे में अंतर

  • जब राजस्व व्यय, राजस्व प्राप्तियों से अधिक होता है तो इसे राजस्व घाटा कहा जाता है सूत्र के रूप में, राजस्व घाटा = राजस्व व्यय - राजस्व प्राप्तियाँ
  • दूसरी ओर बजट के अंतर्गत जब कुल व्यय कुल प्राप्तियों से अधिक होता है तो इस अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है राजकोषीय घाटा = कुल व्यय - (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर ऋणसे सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ) = (राजस्व व्यय + पूँजीगत व्यय) - (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ) = (राजस्व व्यय - राजस्व प्राप्तियाँ) + (पूँजीगत व्यय - गैर ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ)

प्राथमिक घाटा क्या है?

चालू वित्‍त वर्ष के राजकोषीय घाटे से पिछली उधारी के ब्‍याज को घटाने पर प्राथमिक घाटा मिलता है. जहां राजकोषीय घाटे में ब्‍याज भुगतान सहित सरकार की कुल उधारी शामिल होती है. वहीं, प्राथमिक घाटे यानी प्राइमरी डेफिसिट में ब्‍याज के भुगतान को शामिल नहीं किया जाता है. प्राइमरी डेफिसिट का मतलब यह हुआ कि सरकार को ब्‍याज के भुगतान को हटाकर खर्चों को पूरा करने के लिए कितने उधार की जरूरत है.

जीरो प्राइमरी डेफिसिट ब्‍याज के भुगतान के लिए उधारी की जरूरत को दिखाता है. ज्‍यादा प्राइमरी डेफिसिट चालू वित्‍त वर्ष में नई उधारी की जरूरत को दर्शाता है. चूंकि यह पहले से ही उधारी के ऊपर की रकम होती है. इसलिए इसे घटाने के लिए वही उपाय करने होंगे जो राजकोषीय घाटे के मामले में लागू होते हैं।

  • कुल व्यय: सरकार द्वारा 2020-21 में 30,42,230 करोड़ रुपए के व्यय का अनुमान है। यह 2019-20 के संशोधित अनुमानों से 12.7% अधिक है। कुल व्यय में से राजस्व व्यय के 26,30,145 करोड़ रुपए (11.9% की वृद्धि) और पूंजीगत व्यय के 4,12,085 करोड़ रुपए (18.1% की वृद्धि) होने का अनुमान है।
  • कुल प्राप्तियां: सरकार की प्राप्तियां 22,45,893 करोड़ रुपए अनुमानित हैं (उधारियों के अतिरिक्त), जिसमें 2019-20 के संशोधित अनुमान से 16.3% की वृद्धि है। प्राप्तियों और व्यय में इस अंतराल को उधारियों के जरिए कम किया जाएगा जोकि 7,96,337 करोड़ रुपए अनुमानित हैं। 2019-20 के संशोधित अनुमानों की तुलना में इसमें 3.8% की वृद्धि है।
  • राज्यों को हस्तांतरण: केंद्र सरकार द्वारा 2020-21 में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 13,90,666 करोड़ रुपए हस्तांतरित किए जाएंगे। यह 2019-20 के संशोधित अनुमानों से 17.1% अधिक है और इसमें (i) राज्यों को केंद्रीय करों से 7,84,181 करोड़ रुपए का हस्तांतरण किया जाएगा, और (ii) 6,06,485 करोड़ रुपए अनुदानों और ऋणों के रूप में दिए जाएंगे।
  • घाटे: 2020-21 में राजस्व घाटा जीडीपी के 2.7% पर और राजकोषीय घाटा 3.5% पर लक्षित है। प्राथमिक घाटा (जोकि ब्याज भुगतानों के अतिरिक्त राजकोषीय घाटा होता है) जीडीपी के 0.4% पर लक्षित है।
  • जीडीपी की वृद्धि का अनुमान: 2020-21 में नॉमिनल जीडीपी के 10% की दर से बढ़ने का अनुमान है। 2019-20 में नॉमिनल जीडीपी की वृद्धि दर 12% थी।
नोट: प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में घोषित किए गए बजटीय आबंटनों को बजटीय अनुमान कहा जाता है। वित्तीय वर्ष के अंत में प्राप्तियों और व्यय की अनुमानित राशि को संशोधित अनुमान कहा जाता है।

राजकोषीय घाटे के मोर्चे पर भारत का अब तक का प्रदर्शन

  • आँकड़ों के मुताबिक मिश्रित घाटा, वर्ष 1980 के दशक की शुरुआत में जीडीपी के 6 फीसदी से बढ़कर दशक के मध्य तक 8 फीसदी और सन 1990-91 तक 8-9 फीसदी के स्तर पर आ गया। राजकोषीय असंतुलन बढ़ा। केंद्र सरकार को अक्सर सन 1991 के भुगतान संतुलन के संकट के लिये प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार माना जाता है। माना जाता है कि पिछले वर्षों की ढीली राजकोषीय नीति उक्त संकट के लिये उत्तरदायी थी।
  • विदित हो कि इस संकट ने केंद्र सरकार को राजकोषीय समावेशन की शुरुआत करने के लिये प्रेरित किया और मिश्रित घाटे को सन 1990-91 के 9 फीसदी से अधिक के स्तर से घटाकर वर्ष 1996-97 में 6 फीसदी तक करने में सफलता मिली। लेकिन यह स्थिति बहुत लंबे समय तक नहीं बनी रही। वर्ष 1996-97 के बाद के पाँच सालों में संयुक्त राजकोषीय घाटा दोबारा 9.6 फीसदी के स्तर तक पहुँच गया।
  • वर्ष 2002-03 से लेकर अगले पाँच साल में इसमें भरी कमी देखी गई और यह 9.3 फीसदी से घटकर 4.7 फीसदी पर आ गया। इस दौरान राज्य और केंद्र दोनों ही स्तरों पर सकारात्मक प्रयास किये जा रहे थे। संसद ने राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन कानून को 2003 में पारित कर दिया था और सन 2004 में इसकी अधिसूचना भी जारी कर दी गई थी।
  • वर्ष 2004 में 12वें वित्त आयोग की अनुशंसा के बाद ऋण राहत को राज्यों से जोड़ दिया गया, लगभग सभी राज्यों ने यही किया। राज्यों के बिक्री कर को राज्य मूल्यवर्द्धित कर में तब्दील कर दिया गया और केंद्र के सेवा कर दायरे का भी समुचित विस्तार हुआ। राजकोषीय घाटा कम होने से ब्याज दर कम होती गई। इससे निवेश और वृद्घि को बल मिला। इसका असर राजस्व पर पड़ा और घाटा आगे चलकर और कम हो गया।

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  Last update :  Mon 26 Dec 2022
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