सल्तनतकालीन प्रमुख सूफी संत एवं स्थापत्य कला

सूफ़ी संत किसे कहते है?

सूफ़ीवाद का पालन करने वाले संत सूफ़ी संत कहलाते हैं। यह इस्लाम धर्म की उदारवादी शाखा है। सूफी संत, ईश्‍वर की याद में ऐसे खोए होते हैं कि उनका हर कर्म सिर्फ ईश्‍वर के लिए होता है और स्‍वयं के लिए किया गया हर कर्म उनके लिए वर्जित होता है, इसलिए संसार की मोहमाया उन्‍हें विचलित नहीं कर पाती। सूफी संत एक ईश्वर में विश्वास रखते हैं तथा भौतिक सुख-सुविधाओं को त्याग कर धार्मिक सहिष्णुता और मानव-प्रेम तथा भाईचारे पर विशेष बल देते हैं।

सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति: अबू नस्र अल सिराज की पुस्तक ‘किताब-उल-लुमा’ में किये गये उल्लेख के आधार पर माना जाता है कि, सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ‘सूफ़’ (ऊन) से हुई, जो एक प्रकार से ऊनी वस्त्र का सूचक है, जिसे प्रारम्भिक सूफ़ी लोग पहना करते थे।

‘सफ़ा’ से भी उत्पत्ति मानी जाती है। सफ़ा का अर्थ 'पवित्रता' या 'विशुद्धता' से है। इस प्रकार आचार-व्यवहार से पवित्र लोग सूफ़ी कहे जाते थे। एक अन्य मत के अनुसार- हजरत मुहम्मद साहब द्वारा मदीना में निर्मित मस्जिद के बाहर सफ़ा अर्थात् 'मक्का की पहाड़ी' पर कुछ लोगों ने शरण लेकर अपने को खुदा की अराधना में लीन कर लिया, इसलिए वे सूफ़ी कहलाये।

सल्तनतकाल के प्रमुख सूफी संतों के नाम:

  • ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती
  • बाबा फरीद
  • शेख निजामुद्दीन औलिया
  • गेसुदराज
  • नसीरुद्दीन महमूद
  • शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी
  • बख्तियार काकी
  • शेख हुसैनी
  • शेख बहाउद्दीन जकरिखा
  • जलालुद्दीन तबरीजी
  • शेख हामिदउद्दीन नागौरी

सल्तनतकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला: सल्तनत काल में भारतीय स्थापत्य कला के क्षेत्र में जिस शैली का विकास हुआ, वह भारतीय तथा इस्लामी शैलियों का सम्मिश्रिण थी। इसलिए स्थापत्य कला की इस शैली को ‘इण्डो इस्लामिक’ शैली कहा गया।

कुछ विद्वानों ने इसे 'इण्डो-सरसेनिक' शैली कहा है। फर्ग्यूसन महोदय ने इसे पठान शैली कहा है, किन्तु यह वास्तव में भारतीय एवं इस्लामी शैलियों का मिश्रण थी। सर जॉन मार्शल, ईश्वरी प्रसाद जैसे इतिहासविदों ने स्थापत्य कला की इस शैली को 'इण्डों-इस्लामिक' शैली व हिन्दू-मुस्लिम शैली कहना उचित समझा।

इण्डों-इस्लामिक स्थापत्य कला शैली की विशेषताएँ निम्न प्रकार थीं:

  • सल्तनत काल में स्थापत्य कला के अन्तर्गत हुए निर्माण कार्यों में भारतीय एवं ईरानी शैलियों के मिश्रण का संकेत मिलता है।
  • सल्तन काल के निर्माण कार्य जैसे- क़िला, मक़बरा, मस्जिद, महल एवं मीनारों में नुकीले मेहराबों-गुम्बदों तथा संकरी एवं ऊँची मीनारों का प्रयोग किया गया है।
  • इस काल में मंदिरों को तोड़कर उनके मलबे पर बनी मस्जिद में एक नये ढंग से पूजा घर का निर्माण किया गया।
  • सल्तनत काल में सुल्तानों, अमीरों एवं सूफी सन्तों के स्मरण में मक़बरों के निर्माण की परम्परा की शुरुआत हुई।
  • इस काल में ही इमारतों की मज़बूती हेतु पत्थर, कंकरीट एवं अच्छे क़िस्म के चूने का प्रयोग किया गया।
  • सल्तनत काल में इमारतों में पहली बार वैज्ञानिक ढंग से मेहराब एवं गुम्बद का प्रयोग किया गया। यह कला भारतीयों ने अरबों से सीखी। तुर्क सुल्तानों ने गुम्बद और मेहराब के निर्माण में शिला एवं शहतीर दोनों प्रणालियों का उपयोग किया।
  • सल्तनत काल में इमारतों की साज-सज्जा में जीवित वस्तुओं का चित्रिण निषिद्ध होने के कारण उन्हें सजाने में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियाँ, ज्यामितीय एवं क़ुरान की आयतें खुदवायी जाती थीं। कालान्तर में तुर्क सुल्तानों द्वारा हिन्दू साज-सज्जा की वस्तुओं जैसे- कमलबेल के नमूने, स्वस्तिक, घंटियों के नमूने, कलश आदि का भी प्रयोग किया जाने लगा। अलंकरण की संयुक्त विधि को सल्तनत काल में ‘अरबस्क विधि’ कहा गया।

सल्तनत कालीन स्थापत्य कला की सूची: 

शासक का नाम इमारत का नाम
कुतुबुद्दीन ऐबक क़ुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद
कुतुबुद्दीन ऐबक व इल्तुतमिश कुतुबमीनार
कुतुबुद्दीन ऐबक अढ़ाई दिन का झोपड़ा
इल्तुतमिश इल्तुतमिश का मक़बरा
इल्तुतमिश जामा मस्जिद
इल्तुतमिश अतारकिन का दरवाज़ा
इल्तुतमिश सुल्तानगढ़ी
बलबन लाल महल
बलबन बलबन का मक़बरा
अलाउद्दीन ख़िलजी जमात खाना मस्जिद
अलाउद्दीन ख़िलजी अलाई दरवाज़ा
अलाउद्दीन ख़िलजी हज़ार सितून (स्तम्भ)
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ तुग़लक़ाबाद
ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ग़यासुद्दीन तुग़लक़ का मक़बरा
मुहम्मद बिन तुग़लक़ आदिलाबाद का मक़बरा
मुहम्मद बिन तुग़लक़ जहाँपनाह नगर
मुहम्मद बिन तुग़लक़ शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया का मक़बरा
मुहम्मद बिन तुग़लक़ फ़िरोज़शाह तुग़लक़ का मक़बरा
जूनाशाह ख़ानेजहाँ फ़िरोज़शाह का मक़बरा
जूनाशाह ख़ानेजहाँ काली मस्जिद
जूनाशाह ख़ानेजहाँ खिर्की मस्जिद
लोदी काल बहलोल लोदी का मक़बरा
इब्राहीम लोदी सिकन्दर शाह लोदी का मक़बरा
मियाँ कुआ मोठ की मस्जिद

अब संबंधित प्रश्नों का अभ्यास करें और देखें कि आपने क्या सीखा?

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स्थापत्य कला प्रश्नोत्तर (FAQs):

अजमेर में प्रसिद्ध सूफी संत हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। यह दरगाह अजमेर शहर की दरगाह शरीफ के नाम से भी प्रसिद्ध है और यह चिश्ती सूफी संत की स्थानीय कब्र है। ऐसा माना जाता है कि हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने 13वीं शताब्दी में अजमेर में अपनी तपस्या की थी और इसी स्थान पर उनकी मृत्यु हुई थी।

शिवाजी के समकालीन मराठा संत का नाम तुकाराम था। तुकाराम एक महाराष्ट्रीयन संत, संगीतकार और भक्ति कवि थे। उनका जन्म 1608 ई. के आसपास और मृत्यु 1650 ई. के आसपास हुई थी। तुकाराम को भक्ति मार्ग के महान संतों में गिना जाता है और उनकी अभिव्यक्ति को तुकाराम अभंग के नाम से जाना जाता है।

नवद्वीप (बंगाल) से आये संत का नाम श्री चैतन्य महाप्रभु था। श्री चैतन्य महाप्रभु 15वीं शताब्दी के एक भारतीय संत और शिक्षक थे। उन्होंने भक्ति आंदोलन शुरू किया और हिंदी भक्ति साहित्य और कीर्तन में एक प्रमुख व्यक्ति बन गए।

सूफी संतों के निवास स्थान को "खानकाह" कहा जाता है। खानकाह एक सूफी आश्रम या महल है जहां सूफी संत अपनी आध्यात्मिक प्रथाओं का संचालन करते हैं और अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं। यह एक ऐसा स्थान है जहां भक्त और शिष्य ध्यान, मंत्र-जाप, संगीत और धार्मिक शिक्षाओं के लिए इकट्ठा होते हैं।

भारत में पहले सूफ़ी संत हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती थे। वह आर्य क्षेत्र के चिश्ती खानदान से थे और उन्होंने 12वीं शताब्दी में राजस्थान के अजमेर में दरगाह ख्वाजा गरीब नवाज की स्थापना की थी। हज़रत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को भारतीय सूफ़ी और इस्लामी धर्म के महान संतों में से एक माना जाता है।

  Last update :  Fri 7 Oct 2022
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