औषधीय पौधे

औषधीय पौधों को भोजन, औषधि, खुशबू, स्वाद, रंजक और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में अन्य मदों के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय पौधों का महत्व उसमें पाए जाने वाले रसायन के कारण होता है। औषधीय पौधों का उपयोग मानसिक रोगों, मिर्गी, पागलपन तथा मंद-बुद्घि के उपचार में किया जाता है। औषधीय पौधे कफ एवं वात का शमन करने, पीलिया, आँव, हैजा, फेफड़ा, अण्डकोष, तंत्रिका विकार, दीपन, पाचन, उन्माद, रक्त शोधक, ज्वर नाशक, स्मृति एवं बुद्घि का विकास करने, मधुमेह, मलेरिया एवं बलवर्धक, त्वचा रोगों एवं ज्वर आदि में लाभकारी हैं।

सुगंध पौधों का महत्व:

दुनिया भर में चिकित्सा प्रणाली मुख्य रूप से दो अलग-अलग धाराओं के माध्यम से काम करती है:- (1) स्थानीय या आदिवासी धारा और (2) कोडित और संगठित चिकित्सा प्रणाली [जैसे- आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी और अम्ची (तिब्बती औषधि)]। औषधीय पौधों को भोजन, औषधि, खुशबू, स्वाद, रंजक और भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में अन्य मदों के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय पौधों का महत्व उसमें पाए जाने वाले रसायन के कारण होता है। औषधीय पौधों का उपयोग मानसिक रोगों, मिर्गी, पागलपन तथा मन्द-बुद्घि के उपचार में किया जाता है। औषधीय पौधे कफ एवं वात का शमन करने, पीलिया, आँव, हैजा, फेफड़ा, अण्डकोष, तंत्रिका विकार, दीपन, पाचन, उन्माद, रक्त शोधक, ज्वर नाशक, स्मृति एवं बुद्घि का विकास करने, मधुमेह, मलेरिया एवं बलवर्धक, त्वचा रोगों एवं ज्वर आदि में लाभकारी हैं। भारत में इन पौधों की खेती के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं।

आज इन पौधों को खेती के बड़े पैमाने पर वैकल्पिक औषधि एवं सुगंध के रूप में उपयोग किया जाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों के लिए वैश्विक/राष्ट्रीय बाज़ार की उपलब्धता का होना भी इन पौधों की खेती के लिए उत्तम है। भारत में इन पौधों की खेती के लिए कृषि-प्रौद्योगिकियों, प्रसंस्करण प्रौद्योगिकियों की उपलब्धता का होना भी खेती करने के लिए कृषकों को आसान बनाता है। औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती से टिकाऊ आधार पर लाभप्रद रिटर्न प्राप्त किया जा सकता है। भारत में उत्पादन होने वाला सुगंध पौधों का तेल फ्रांस, इटली, जर्मनी व संयुक्त राज्य अमेरिका को निर्यात किया जाता है। आज देश के हजारों किसान औषधीय एवं सुगंध पौधों की खेती करके अधिक मुनाफा कमा सकते हैं, जिससे उनकी आय में वृद्धि होगी।

औषधीय पौधे के नाम व उपयोग

अंकोल एक पेड़, जो सारे भारतवर्ष में प्रायः पहाड़ी जमीन पर होता है। यह शरीफे के पेड़ से मिलता-जुलता है। इसमें बेर के बराबर गोल फल लगते हैं, जो पकने पर काले हो जाते हैं। छिलका हटाने पर इसके भीतर बीज पर लिपटा हुआ सफेद गूदा होता है, जो खाने में कुछ मीठा होता है। इस पेड़ की लकढ़ी कड़ी होती है और छड़ी आदि बनाने के काम में आती है। इसकी जड़ की छाल दस्त लाने, वमन कराने, कोढ़ और उपदंश आदि चर्म रोगों को दूर करने तथा सर्प आदि विषैले जंतुओं के विष को हटाने में उपयोगी मानी जाती है। वनस्पतिशास्त्र की भाषा में इसे एलैजियम सैल्बीफोलियम या एलैजियम लामार्की भी कहते हैं। वैसे विभिन्न भाषाओं में इसके विभिन्न नाम हैं जो निम्नलिखित हैं-

  • संस्कृत: अंकोट, दीर्घकील
  • हिंदी: दक्षिणी ढेरा, ढेरा, थेल, अंकूल ; सहारनपुर क्षेत्र- विसमार
  • बँगला: आँकोड़
  • मराठी: आंकुल
  • गुजराती: ओबला
  • कोल: अंकोल
  • संथाली: ढेला।

औषधीय गुण: इस पौधे की जड़ में 0.8 प्रतिशत अंकोटीन नामक पदार्थ पाया जाता है। इसके तेल में भी 0.2 प्रतिशत यह पदार्थ पाया जाता है। अपने रोग नाशक गुणों के कारण यह पौधा चिकित्साशास्त्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। रक्तचाप को कम करने में इसका पूर्ण बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुआ है। हिमालय की तराई, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, दक्षिण भारत एवं बर्मा आदि क्षेत्रों में यह पौधा आसानी से पाया जाता है।

2. अजवायन:

अजवायन तीन भिन्न प्रकार की वनस्पतियों को कहते हैं। एस केवल अजवायन (कैरम कॉप्टिकम), दूसरी खुरासानी अजवायन तथा तीसरी जंगली अजवायन (सेसेली इंडिका) कहलाती है। इसकी खेती समस्त भारतवर्ष में, विशेषकर बंगाल में होती है। मिस्र, ईरान तथा अफ़गानिस्तान में भी यह पौधा होता है। अक्तूबर, नवंबर में यह बोया जाता है और डेढ़ हाथ तक ऊँचा होता है। इसका बीज अजवायन के नाम से बाजार में बिकता है। औषधीय गुण: अजवायन के बहुत से गुण हैं। इसे अपने साथ यात्रा में भी रखा जा सकता है। इसका प्रयोग रोगों के अनुसार कई प्रकार से होता है। यह मसाला, चूर्ण, काढ़ा, क्वाथ और अर्क के रूप में भी काम में लायी जाती है। इसका चूर्ण बनाकर व आठवाँ हिस्सा सेंधा नमक मिलाकर 2 ग्राम की मात्रा में जल के साथ सेवन किया जाये तो पेट में दर्द, मन्दाग्नि, अपच, अफरा, अजीर्ण तथा दस्त में लाभकारी होती है। इसका सेवन दिन में तीन बार करना चाहिए। अजवायन खाने फायदे:

  1. कान का दर्द: अजवायन के तेल 10 बूँद में शुद्ध सरसों का तेल 30 बूँद मिलाये. फिर उसे धीमी आग पर गुनगुना करके दर्द वाले कान में 4-5 बूँद डालकर, ऊपर से साफ़ रुई का फाहा लगा दे. बाल और अजवायन मिलाकर पोटली बना ले, उस पोटली से सिकाई भी करे. दिन में 2-3 बार यह प्रयोग करने से लाभ हो जायेगा.
  2. पथ्य: पतला दलिया, हलुआ या कफ-नाशक पदार्थो का सेवन कराये. बासी व गरिष्ठ भोजन न दे.
  3. दातो में दर्द: अजवायन के तेल में भीगे हुए रुई के फाहे को रोग-ग्रस्त दात पर लगाकर, मुख नीचे करके लार टपकाने से दर्द बंद हो जाता है.
  4. संधि-शूल: शरीर के जोड़ो में किसी भी प्रकार का दर्द होने पर अजवायन के तेल की मालिश करनी चाहिए.
  5. ह्रदय-शूल: अजवायन खिलाते ही ह्रदय में होने वाला दर्द शांत होकर ह्रदय में उत्तेजना बढ़ जाती है.
  6. उदर-शूल या पेट में दर्द होना: अजवायन 3 ग्राम में थोडा पिसा नमक मिलाकर ताजा गरम पानी से फंकी देने से पेट का दर्द बंद हो जाता है. प्लीहा की विकृति दूर हो जाती है तथा पतले दस्त भी बंद हो जाते है.
  7. गले की सूजन: अजवायन के तेल की 5-6 बूंदों को 5 ग्राम शहद में मिलाकर दिन में 3-4 बार तक चाटे. साथ ही थोड़े से अजवायन के चूर्ण को नमक मिले हुए गरम जल में घोलकर उस जल से गरारे भी करने चाहिए. भूख लगने पर भुने हुए आटे का (नमकीन अजवायन भी डाले) हलुआ खाए. बलगम व वायुवर्धक, बासी, गरिष्ठ पदार्थो का सेवन न करे तथा ऊनी वस्त्र आदि से गर्दन व कर्णमूल को ढक ले ताकि रोगी को उचित लाभ मिल सके.

3. अदरक:

अदरक जिंजीबरेसी कुल का पौधा है। वनस्पति शास्त्र की भाषा में इसे जिंजिबर ऑफ़िसिनेल (Zingiber officinale) नाम दिया गया है। इस कुल में लगभग 47 जेनरा और 1150 जातियाँ (स्पीशीज़) पाई जाती हैं। इसका पौधा अधिकतर उष्णकटिबंधीय (ट्रापिकल्स) और शीतोष्ण कटिबंध (सबट्रापिकल) भागों में पाया जाता है। अदरक को अंग्रेज़ी में जिंजर, संस्कृत में आद्रक, हिंदी में अदरख, मराठी में आदा के नाम से जाना जाता है। गीले स्वरूप में इसे अदरक तो सूखने पर इसे सौंठ (शुष्ठी) कहते हैं। यह भारत में बंगाल, बिहार, चेन्नई, कोचीन, पंजाब और उत्तर प्रदेश में अधिक उत्पन्न होती है। अदरक का कोई बीज नहीं होता, इसके कंद के ही छोटे-छोटे टुकड़े ज़मीन में गाड़ दिए जाते हैं। यह एक पौधे की जड़ है। यह भारत में एक मसाले के रूप में प्रमुख है। अदरक का पौधा चीन, जापान, मसकराइन और प्रशांत महासागर के द्वीपों में भी मिलता है। इसके पौधे में सिमपोडियल राइजोम पाया जाता है। अदरक के औषधीय प्रयोग:

  1. एक गिलास गरम पानी में एक चम्मच अदरक का रस मिलाकर कुल्ले करने से मुंह से दुर्गंध आनी बंद हो जाती है।
  2. सर्दी के कारण सिरदर्द हो तो सोंठ को घी या पानी में घिसकर सिर पर लेप करने से आराम मिलता है।
  3. पेट दर्द में एक ग्राम पिसी हुई सोंठ, थोड़ी सी हींग और सेंधा नमक की फंकी गरम पानी के साथ लेने से फ़ायदा होता है।
  4. आधा कप उबलते हुए गरम पानी में एक चम्मच अदरक का रस मिलाकर एक-एक घंटे के अंतराल पर पीने से पानी की तरह हो रहे पतले दस्त पूरी तरह बंद हो जाते हैं।
  5. अदरक का रस और पानी बराबर मात्रा में पीने से हृदय रोग में लाभ होता है।
  6. सोंठ का चूर्ण छाछ में मिलाकर पीने से अर्श (बवासीर) मस्से में लाभ होता है।
  7. पाचन की समस्या होने पर रोजाना सुबह अदरक का एक टुकड़ा खाएं। ऐसा करने से आपको बदहजमी नहीं होगी। इसके अलावा सीने की जलन दूर करने में भी अदरक मददगार साबित होता है।
  8. शरीर में वसा का स्तर कम करने में भी अदरक काफ़ी मददगार है।
  9. यदि आपको खांसी के साथ कफ की भी शिकायत है तो रात को सोते समय दूध में अदरक डालकर उबालकर पिएं। यह प्रक्रिया क़रीब 15 दिनों तक अपनाएं। इससे सीने में जमा कफ आसानी से बाहर निकल आएगा।
  10. ताजे अदरक को पीसकर कप़ड़े में डाल लें और निचोड़कर रस निकालकर रोगी को पीने को दें।
  11. भोजन से पूर्व अदरक की कतरन में नमक डालकर खाने से खुलकर भूख लगती है, खाने में रुचि पैदा होती है, कफ व वायु के रोग नहीं होते एवं कंठ व जीभ की शुद्धि होती है।
  12. अदरक और प्याज का रस समान मात्रा में पीने से उल्टी (वमन) होना बंद हो जाता है।
  13. सर्दियों में अदरक को गुड़ में मिलाकर खाने से सर्दी कम लगती है तथा शरीर में गर्मी पैदा होती है। सर्दी लगकर होने वाली खांसी का कफ वाली खांसी की यह अचूक दवा है।
  14. अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े मुंह में रखकर चूसने से हिचकियां आनी बंद हो जाती हैं।
  15. सर्दी के कारण होने वाले दांत व दाढ़ के दर्द में अदरक के टुकड़े दबाकर रस चूसने से लाभ होता है।

4. अनंतमूल:

अनंतमूल (अंग्रेज़ी नाम: Indian Sarsaparilla और वानस्पतिक नाम नाम: Hemidesmus indicus) एक बेल है, जो लगभग सारे भारतवर्ष में पाई जाती है। इनमें सुगंध एक उड़नशील सुगंधित द्रव्य के कारण होती है, जिस पर इस औषधि के समस्त गुण अवलंबित प्रतीत होते हैं। इनकी जडें औषधि बनाने के काम में आती हैं। अनंतमूल का औषधीय उपयोग: आयर्वैदिक रक्तशोशक औषधियों में इसी का प्रयोग किया जाता हैं। काढ़े या पाक के रूप में अनंतमूल दिया जाता है। आयुर्वेद के मतानुसार यह सूजन कम करती है, मूत्ररेचक है, अग्निमांद्य, ज्वर, रक्तदोष, उपदंश, कुष्ठ, गठिया, सर्पदंश, वृश्चिकदंश इत्यादि में उपयोगी हैं।

5. अरण्यतुलसी:

अरण्यतुलसी का पौधा ऊँचाई में आठ फुटतक, सीधा और डालियों से भरा होता है। छाल खाकी, पत्ते चार इंच तक लंबे और दोनों ओर चिकने होते हैं। यह बंगाल, नैपाल, आसाम की पहाड़ियों, पूर्वी नैपाल और सिंध में मिलता है। यह श्वेत (ऐल्बम) और काला (ग्रैटिसिमम) दो प्रकार का होता है। इसके पत्तों को हाथ से मलने पर तेज सुगंध निकलती है। अरण्यतुलसी का औषधीय उपयोग: आयुर्वेद में इसके पत्तों को वात, कफ, नेत्ररोग, वमन, मूर्छा अग्निविसर्प (एरिसिपलस), प्रदाह (जलन) और पथरी रोग में लाभदायक कहा गया है। ये पत्ते सुखपूर्वक प्रसव कराने तथा हृदय को भी हितकारक माने गए हैं। इन्हें पेट के फूलने को दूर करने वाला, उत्तेजक, शांतिदायक तथा मूत्रनिस्सारक समझा जाता है। रासायनिक विश्लेषण से इनमें थायमोल, यूगेनल तथा एक अन्य उड़नशील (एसेंशियल) तेल मिले हैं।

6. अश्वगंधा

अश्वगंधा (वानस्पतिक नाम: 'विथानिआ सोमनीफ़ेरा' - Withania somnifera) एक झाड़ीदार रोमयुक्त पौधा है। कहने को तो अश्वगंधा एक पौधा है, लेकिन यह बहुवर्षीय पौधा पौष्टिक जड़ों से युक्त है। अश्वगंधा के बीज, फल एवं छाल का विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इसे 'असंगध' एवं 'बाराहरकर्णी' भी कहते हैं। अश्वगंधा की कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है, इसीलिए भी इसे 'अश्वगंधा' या 'वाजिगंधा' कहा जाता है। इसका सेवन करते रहने से अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है, अतः इसका नाम सार्थक है। सूख जाने पर अश्वगंधा की गंध कम हो जाती है। अश्वगंधा का औषधीय उपयोग: 

  1. अश्वगंधा के पौधे को पीसकर लेप बनाकर लगाने से शरीर की सूजन, शरीर की किसी विकृत ग्रंथि और किसी भी तरह के फुंसी-फोड़े को हटाने में काम आती है।
  2. पोधे की पत्तियों को घी, शहद, पीपल इत्यादि के साथ मिलाकर सेवन करने से शरीर निरोग रहता है।
  3. यदि किसी को चर्म रोग है तो उसके लिए भी अश्वगंधा जड़ी-बूटी बहुत लाभकरी है। इसका चूर्ण बनाकर तेल से साथ लगाने से चर्म रोग से निजात पाई जा सकती है।
  4. उच्च रक्तचाप की समस्या से पीडि़त लोग यदि अश्वगंधा के चूर्ण का दूध के साथ नियमित सेवन करेंगे तो निश्चित तौर पर उनका रक्तचाप सामान्य‍ हो जाएगा।
  5. शरीर में कमज़ोरी या दुर्बलता को भी अश्वगंधा तेल से मालिश कर दूर किया जा सकता है, इतना ही नहीं गैस संबंधी समस्या में भी ये पौधा अत्यंत लाभदायक होता है।

7. आंवला:

आंवला एक फल देने वाला वृक्ष है। यह लगभग 20 से 25 फुट लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ़्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्रायद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुत बड़ी मात्रा में मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। आंवले को मनुष्य के लिए प्रकृति का वरदान कहा जाता है। आंवला या इंडियन गूसबेरी एक देशज फल है, जो भारतीय उपमहाद्वीप में पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति और विकास मुख्य रूप से भारत में मानी जाती है। आंवले का पेड़ भारत के प्राय: सभी प्रांतों में पैदा होता है।

आंवला का औषधीय उपयोग: आयुर्वेद में आंवले को बहुत महत्ता प्रदान की गई है, जिससे इसे रसायन माना जाता है। च्यवनप्राश आयुर्वेद का प्रसिद्ध रसायन है, जो टॉनिक के रूप में आम आदमी भी प्रयोग करता है। इसमें आंवले की अधिकता के कारण ही विटामिन 'सी' भरपूर होता है। यह शरीर में आरोग्य शक्ति बढ़ाता है। त्वचा, नेत्र रोग और केश (बालों) के लिए विटामिन सी बहुत उपयोगी है। संक्रमण से बचाने, मसूढ़ों को स्वस्थ रखने, घाव भरने और रक्त बनाने में भी विटामिन सी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके अलावा आंवला का उपयोग त्रिफला बनाने में किया जाता है जो कब्ज या पेट में गैस की समस्या को दूर करने के लिए उपयुक्त दवा है। त्रिफला स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के साथ ही शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता को भी बढाता है। इस फल में आयरन व कैल्शियम भी पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। आयरन रक्त को बढ़ाता है। आंवला आयुर्वेद और यूनानी पैथी की प्रसिद्ध दवाइयों, च्यवन प्राश, ब्राह्म रसायन, धात्री रसायन, अनोशदारू, त्रिफला रसायन, आमलकी रसायन, त्रिफला चूर्ण, धायरिष्ट, त्रिफलारिष्ट, त्रिफला घृत आदि के साथ मुरब्बे, शर्बत, केश तेल आदि निर्माण में प्रयुक्त होता है।

8. इमली:

इमली पादप कुल फैबेसी का एक वृक्ष है। इसके फल लाल से भूरे रंग के होते हैं, तथा स्वाद में बहुत खट्टे होते हैं। इमली का पेड़ सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसके अलावा यह अमेरिका, अफ्रीका और कई एशियाई देशों में पाया जाता है। इमली के पेड़ बहुत बड़े होते हैं। 8 वर्ष के बाद इमली का पेड़ फल देने लगता है। फरवरी और मार्च के महीनों में इमली पक जाती है। इमली शाक (सब्जी), दाल, चटनी आदि कई चीजों में डाली जाती है। इमली का स्वाद खट्टा होने के कारण यह मुंह को साफ़ करती है। पुरानी इमली नई इमली से अधिक गुणकारी होती है। इमली के पत्तों का शाक (सब्जी) और फूलों की चटनी बनाई जाती है। इमली की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इस कारण लोग इसकी लकड़ी से कुल्हाड़ी आदि के दस्ते भी बनाते हैं।

इमली का औषधीय उपयोग: पके हुए फल का गूदा पित्त की उल्टी, कब्ज, वायु विकार, अपचन के इलाज में लाभदायक है। पानी के साथ इसके गूदे को कोमल करके बनाया हुआ अर्क भूख में कमी होने में फायदा पहुंचाता है। यह बीमारी विटामिन सी की कमी से होने वाला रोग है, जिससे त्वचा में धब्बे आ जाते हैं, मसूड़े स्पंजी हो जाते हैं और श्लेष्मा झिल्ली से रक्त बहता है। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति पीला और उदास दिखता है। इमली में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। यह स्कर्वी के इलाज में लाभदायक है।

9. केसर:

केसर का वानस्पतिक नाम क्रोकस सैटाइवस (Crocus sativus) है। अंग्रेज़ी में इसे सैफरन (saffron) नाम से जाना जाता है। यह इरिडेसी (Iridaceae) कुल का क्षुद्र वनस्पति है जिसका मूल स्थान दक्षिण यूरोप है। 'आइरिस' परिवार का यह सदस्य लगभग 80 प्रजातियों में विश्व के विभिन्न भू-भागों में पाया जाता है। विश्व में केसर उगाने वाले प्रमुख देश हैं - फ्रांस, स्पेन, भारत, ईरान, इटली, ग्रीस, जर्मनी, जापान, रूस, आस्ट्रिया, तुर्किस्तान, चीन, पाकिस्तान के क्वेटा एवं स्विटज़रलैंड। आज सबसे अधिक केसर उगाने का श्रेय स्पेन को जाता है, इसके बाद ईरान को। कुल उत्पादन का 80% इन दोनों देशों में उगाया जा रहा है, जो लगभग 300 टन प्रतिवर्ष है।

केसर का औषधीय उपयोग:

  1. केसर का उपयोग आयुर्वेदिक नुस्खों में, खाद्य व्यंजनों में और देव पूजा आदि में तो केसर का उपयोग होता ही था पर अब पान मसालों और गुटकों में भी इसका उपयोग होने लगा है। केसर बहुत ही उपयोगी गुणों से युक्त होती है। यह कफ नाशक, मन को प्रसन्न करने वाली, मस्तिष्क को बल देने वाली, हृदय और रक्त के लिए हितकारी, तथा खाद्य पदार्थ और पेय (जैसे दूध) को रंगीन और सुगन्धित करने वाली होती है।
  2. चिकित्सा में यह उष्णवीर्य, आर्तवजनक, वात-कफ-नाशक और वेदनास्थापक माना गया है। अत: पीड़ितार्तव, सर्दी जुकाम तथा शिर:शूलादि में प्रयुक्त होता है। यह उत्तेजक, वाजीकारक, यौनशक्ति बनाए रखने वाली, कामोत्तेजक, त्रिदोष नाशक, आक्षेपहर, वातशूल शामक, दीपक, पाचक, रुचिकर, मासिक धर्म साफ़ लाने वाली, गर्भाशय व योनि संकोचन, त्वचा का रंग उज्ज्वल करने वाली, रक्तशोधक, धातु पौष्टिक, प्रदर और निम्न रक्तचाप को ठीक करने वाली, कफ नाशक, मन को प्रसन्न करने वाली, वातनाड़ियों के लिए शामक, बल्य, वृष्य, मूत्रल, स्तन (दूध) वर्द्धक, मस्तिष्क को बल देने वाली, हृदय और रक्त के लिए हितकारी, तथा खाद्य पदार्थ और पेय (जैसे दूध) को रंगीन और सुगन्धित करने वाली होती है।
  3. आयुर्वेदों के अनुसार केसर उत्तेजक होती है और कामशक्ति को बढ़ाती है। यह मूत्राशय, तिल्ली, यकृत (लीवर), मस्तिष्क व नेत्रों की तकलीफों में भी लाभकारी होती है। प्रदाह को दूर करने का गुण भी इसमें पाया जाता है।

10. नीम:

नीम एक चमत्कारी वृक्ष माना जाता है। नीम जो प्रायः सर्व सुलभ वृक्ष आसानी से मिल जाता है। नीम के पेड़ पूरे दक्षिण एशिया में फैले हैं और हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं। नीम एक बहुत ही अच्छी वनस्पति है जो कि भारतीय पर्यावरण के अनुकूल है और भारत में बहुतायत में पाया जाता है। भारत में इसके औषधीय गुणों की जानकारी हज़ारों सालों से रही है।

नीम का औषधीय उपयोग:

  1. नीम के तेल से मालिश करने से विभिन्न प्रकार के चर्म रोग ठीक हो जाते हैं।
  2. नीम का लेप सभी प्रकार के चर्म रोगों के निवारण में सहायक है।
  3. नीम की दातुन करने से दांत व मसूढे मज़बूत होते है और दांतों में कीडा नहीं लगता है, तथा मुंह से दुर्गंध आना बंद हो जाता है।
  4. इसमें दोगुना पिसा सेंधा नमक मिलाकर मंजन करने से पायरिया, दांत-दाढ़ का दर्द आदि दूर हो जाता है।
  5. नीम की कोपलों को पानी में उबालकर कुल्ले करने से दाँतों का दर्द जाता रहता है।
  6. नीम की पत्तियां चबाने से रक्त शोधन होता है और त्वचा विकार रहित और चमकदार होती है।
  7. नीम की पत्तियों को पानी में उबालकर और पानी ठंडा करके उस पानी से नहाने से चर्म विकार दूर होते हैं, और ये ख़ासतौर से चेचक के उपचार में सहायक है और उसके विषाणु को फैलने न देने में सहायक है।
  8. चेचक होने पर रोगी को नीम की पत्तियों बिछाकर उस पर लिटाएं।
  9. नीम की छाल के काढे में धनिया और सौंठ का चूर्ण मिलाकर पीने से मलेरिया रोग में जल्दी लाभ होता है।
  10. नीम मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों को दूर रखने में अत्यन्त सहायक है। जिस वातावरण में नीम के पेड़ रहते हैं, वहाँ मलेरिया नहीं फैलता है। नीम के पत्ते जलाकर रात को धुआं करने से मच्छर नष्ट हो जाते हैं और विषम ज्वर (मलेरिया) से बचाव होता है।
  11. नीम के फल (छोटा सा) और उसकी पत्तियों से निकाले गये तेल से मालिश की जाये तो शरीर के लिये अच्छा रहता है।
  12. नीम के द्वारा बनाया गया लेप वालों में लगाने से बाल स्वस्थ रहते हैं और कम झड़ते हैं।
  13. नीम और बेर के पत्तों को पानी में उबालें, ठंण्डा होने पर इससे बाल, धोयें स्नान करें कुछ दिनों तक प्रयोग करने से बाल झडने बन्द हो जायेगें व बाल काले व मज़बूत रहेंगें।

अब संबंधित प्रश्नों का अभ्यास करें और देखें कि आपने क्या सीखा?

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प्रश्नोत्तर (FAQs):

स्वास्थ्य-वर्धक औषधी सम्पाको के उत्पादन में व्यापक रूप से प्रयुक्त स्पाइरूलिना नील-हरित शैवाल होता है?

सिनकोना का पेड़ अमेज़ॅन बेसिन के ऊंचे जंगलों में एंडीज़ के पूर्व में उगता है। यह विश्व स्तर पर कुनैन के स्रोत के रूप में प्रसिद्ध है, जो मलेरिया रोग के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा है

ये दक्षिण अमेरिकी पेड़ सिनकोना पौधै की छाल से प्राप्त होता है। इससे क्यूनीन नामक मलेरिया बुखार की दवा के निर्माण में किया जाता है।

होम्योपैथी एक छद्म-वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति है। होम्योपैथिक तैयारी किसी भी स्थिति या बीमारी के इलाज के लिए प्रभावी नहीं हैं; बड़े पैमाने पर किए गए अध्ययनों में होमियोपैथी को प्लेसीबो से अधिक प्रभावी नहीं पाया गया है। होम्‍योपैथी चिकित्‍सा छद्म-विज्ञान के जन्‍मदाता सैमुएल हैनीमेन है।

औषध विज्ञान चिकित्सीय स्थितियों के इलाज के लिए उपयोग की जाने वाली दवाओं और औषधियों का वैज्ञानिक अध्ययन है।

  Last update :  Wed 14 Jun 2023
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